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Wednesday, June 18, 2025

Naxalism and the Communist Movement in India

नक्सलवाद और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन

नक्सलवाद और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन

नक्सलवाद की उत्पत्ति

नक्सलवाद का नाम पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से लिया गया है, जहाँ 1967 में कानू सान्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में एक किसान विद्रोह शुरू हुआ। यह विद्रोह स्थानीय जमींदारों के खिलाफ था, जिन्होंने भूमि विवाद में एक किसान की पिटाई की थी। इसका उद्देश्य भूमि का उचित पुनर्वितरण था। चारु मजूमदार, कानू सान्याल, और जंगल संथाल ने इस आंदोलन को माओवादी विचारधारा से प्रेरित होकर आगे बढ़ाया, जिसे पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने समर्थन दिया। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र, पीपुल्स डेली, ने इसे "स्प्रिंग थंडर" करार दिया और एक संपादकीय पृष्ठ समर्पित किया।

यह आंदोलन पश्चिम बंगाल से शुरू होकर छत्तीसगढ़, ओडिशा, और आंध्र प्रदेश जैसे कम विकसित क्षेत्रों में फैल गया। मजूमदार ने माओत्से तुंग की रणनीति से प्रेरणा ली, लेकिन नक्सलवाद अंततः माओवाद से भिन्न हो गया।

 

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दुनिया में कम्युनिस्ट आंदोलन

साम्यवाद एक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विचारधारा है, जो वर्गहीन और राज्यहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य रखती है। इसमें उत्पादन के साधन सामुदायिक स्वामित्व में होते हैं, और संसाधनों का वितरण आवश्यकताओं के आधार पर होता है। कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने 19वीं सदी में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो (1848) और कैपिटल (1867) के माध्यम से इस विचारधारा को प्रस्तुत किया।

सोवियत संघ की स्थापना 1917 की रूसी क्रांति के परिणामस्वरूप हुई, जो साम्यवाद का पहला राष्ट्र बन गया। चीन में 1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता हासिल की और भूमि सुधार लागू किए। माओवाद, माओ ज़ेडोंग की विचारधारा, किसानों और श्रमिकों के विद्रोह पर केंद्रित थी। उदाहरण के लिए, नेपाल में माओवादी गुरिल्ला समूह ने सामाजिक न्याय और भूमि सुधार के लिए संघर्ष किया।

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन

1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की स्थापना ने साम्यवादी विचारधारा को मजबूत किया। यह ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सर्वहारा क्रांति से प्रेरित थी। रूसी क्रांति और असहयोग आंदोलन की विफलता ने इसे बढ़ावा दिया। मार्क्सवाद और लेनिनवाद ने श्रमिकों और किसानों के हितों को प्राथमिकता दी।

तेलंगाना आंदोलन (1946-1951) ने भूमि पुनर्वितरण की मांग की, लेकिन भारतीय सेना के दमन और सीपीआई के आत्मसमर्पण के कारण यह समाप्त हुआ। 1964 में सीपीआई से सीपीआई-मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) का गठन हुआ, लेकिन वैचारिक मतभेदों और चीन-सोवियत तनाव के कारण 1969 में चारु मजूमदार ने सीपीआई-मार्क्सवादी-लेनिनवादी (सीपीआई-एमएल) की स्थापना की।

नक्सलवाद का विकास

नक्सलबाड़ी विद्रोह ने सीपीआई-एम को विभाजित किया, क्योंकि यह संयुक्त मोर्चा सरकार का हिस्सा थी, जिसने भूमि सुधार में असफलता दिखाई। मजूमदार ने माओवादी क्रांति की वकालत की, जिसका नारा था: "चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन हैं।" 1971 में ऑपरेशन स्टीपलचेज़ ने नक्सली आंदोलन को कुचल दिया, लेकिन 1990 के दशक में उदारीकरण के दौरान यह फिर उभरा।

2004 में पीपुल्स वॉर ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के विलय से सीपीआई-माओवादी और इसकी सशस्त्र शाखा पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) बनी। यह रेड कॉरिडोर में सक्रिय है, जिसमें छत्तीसगढ़, झारखंड, और बिहार शामिल हैं।

आधुनिक माओवादी और हिंसा

सीपीआई-माओवादी को 2009 में आतंकवादी संगठन घोषित किया गया। इसने रेड कॉरिडोर में हिंसा बढ़ाई, जिसमें पुलिस और अर्धसैनिक बल निशाना बने। उदाहरण के लिए, 2010 में छत्तीसगढ़ में 76 सुरक्षा कर्मी मारे गए। 2019 में गढ़चिरौली में आईईडी विस्फोट में 15 लोग मारे गए। 1980-2015 के बीच, नक्सली हिंसा में 20,012 लोग मारे गए, जिनमें 12,146 नागरिक थे।

2013-2018 में हिंसा में 26.7% कमी आई, क्योंकि भारत सरकार की उग्रवाद-विरोधी नीतियों और विकास प्रयासों ने माओवादियों को कमजोर किया।

वित्तीय स्रोत और आपराधिक गतिविधियाँ

सीपीआई-माओवादी की वित्तीय नीति में जबरन वसूली, क्रांतिकारी कर, और ड्रग तस्करी शामिल हैं। 2018 में झारखंड से 700 मिलियन रुपये की हेरोइन जब्त की गई। ओडिशा में भांग तस्करी भी इसका स्रोत है। आईएसआई और लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठनों के साथ संबंधों ने नक्सलियों को प्रशिक्षण और हथियार प्रदान किए।

अन्य समूहों से संबंध

माओवादियों को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) से विस्फोटक प्रशिक्षण मिला। यूनाइटेड लिबरेटेड फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और बांग्लादेश कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भी उनके संबंध हैं। ये गठजोड़ भारत सरकार के लिए चिंता का विषय हैं।

निष्कर्ष

नक्सलवाद का लक्ष्य भूमि पुनर्वितरण और सामाजिक न्याय रहा है, लेकिन यह भारत सरकार और आर्थिक विकास के खिलाफ लड़ता है। सीपीआई और सीपीआई-एम ने मुख्यधारा की राजनीति को अपनाया, लेकिन सीपीआई-माओवादी सशस्त्र संघर्ष पर कायम है। उग्रवाद-विरोधी नीतियाँ और विकास प्रयास इसे कमजोर कर रहे हैं, लेकिन मानवाधिकार उल्लंघन की चुनौतियाँ बनी हुई हैं।

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